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शत्रु स्तम्भय

जीवन मे निरंतर पग पग पर समस्या तथा बाधाए आना स्वाभाविक है. आज के युग मे जब चारो तरफ अविश्वास और ढोंग का माहोल छाया हुआ है तब ज्यादातर व्यक्तियो का समस्या से ग्रस्त रहना स्वाभाविक है. और व्यक्ति कई प्रकार के षड्यंत्रो का भोग बनता है. यु एक हस्ते खेलते परिवार का जीवन अत्यधिक दुखी हो जाता है. कई बार व्यक्ति के परिचित ही उसके सबसे बड़े शत्रु बन जाते है और यही कोशिश मे रहते है की किसी न किसी रूप मे इस व्यक्ति का जीवन बर्बाद करना ही है. चाहे इसके लिए स्वयं का भी नुक्सान कितना भी हो जाए. आज के इस अंधे युग मे मानवता जैसे शब्दों को माना नहीं जाता है. और व्यक्ति इसे अपना भाग्य मान कर चुप हो जाता है. अपने सामने ही खुद की तथा परिवार की बर्बादी को देखता ही रहता है और आखिर मे अत्यधिक दारुण परिणाम सामने आते है जो की किसी के भी जीवन को हिलाकर रख देते है. एसी परिस्थिति मे गिडगिडाने के अलावा और कोई उपाय व्यक्ति के पास नहीं रह जाता है. लेकिन हमारे ग्रंथो मे जहा एक और नम्रता को महत्व दिया है तो दूसरी और व्यक्ति की कायरता को बहोत बड़ा बाधक भी माना है. एसी परिस्थितियो मे शत्रु को सबक सिखाना कोई मर्यादाविरुद्ध नहीं है. यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार व्यक्ति अपनी और परिवार की आत्मरक्षा के लिए हमलावर को हावी ना होने दे और उस पर खुद ही हावी हो जाए. हमारे तंत्र ग्रंथो मे इस प्रकार के कई महत्वपूर्ण प्रयोग है जिसे योग्य समय पर उपयोग करना हितकारी है. लेकिन मजाक मस्ती मे या फिर किसी को गलत इरादे से व्यर्थ ही परेशान करने के लिए इस प्रकार की साधनाओ का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए वरना इसका भयंकर विपरीत परिणाम भी आ सकता है. शत्रुओ के द्वारा निर्मित षड्यंत्रो का किसीभी प्रकार से कोई असर हम पर ना हो और भविष्य मे वह हमारे विरुद्ध परेशान या नुकसान के इरादे से कोई भी योजना ना बना पाए इस प्रकार से साधक का चिंतन हो तो वह यथायोग्य है. तन्त्र के कई रहस्यपूर्ण और गुप्त विधानों मे से एक विधान है “ ज्वाला शत्रु स्तम्भन ”. यह अत्यधिक महत्वपूर्ण विधान है जिसे पूर्ण सात्विक तरीके से सम्प्पन किया जाता है लेकिन इसका प्रभाव अत्यधिक तीक्ष्ण है. देवी ज्वाला अपने आप मे पूर्ण अग्नि रूप है, और शत्रुओ की गति मति स्तंभित कर के साधक का कल्याण करती है. साधक को इस प्रयोग के लिए कोई विशेष सामग्री की ज़रूरत नहीं है.
इस विधान को साधक किसी भी दिन से शुरू कर सकता है तथा इसे 21 दिन तक करना है, इन 21 दिनों मे साधक को शुद्ध सात्विक भोजन ही करना चाहिए, लहसुन तथा प्याज भी नहीं खाना चाहिए. यह जैन तंत्र साधना है इस लिए इन बातो का ध्यान रखा जाए. इस प्रयोग मे वस्त्र तथा आसान सफ़ेद रहे. दिशा उत्तर रहे. साधक रात्री काल मे 11 बजे के देवी ज्वाला को मन ही मन शत्रुओ से मुक्ति के लिए प्रार्थना करे. इसके बाद निम्न मंत्र की 10008 आहुतिय शुद्ध घी से अग्नि मे प्रदान करे.
औम झ्राम् ज्वालामालिनि शत्रु स्तम्भय उच्चाटय फट्
आहुति के बाद साधक फिर से देवी को प्रार्थना करे तथा भूमि पर सो जाए. इस प्रकार 21 दिन नियमित रूप से करने पर साधक के समस्त शत्रु स्तंभित हो जाते है और साधक को किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होती. शत्रु के समस्त षडयंत्र उन पर ही भारी पड जाते है.

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