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जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भैरवी साधना और भैरवी

भैरवी साधना और भैरवी ||||| तंत्र साधना शक्ति साधना है |शक्ति प्राप्त करके उससे मोक्ष की अवधारणा तंत्र की मूल अवधारणा है |स्त्रियों को शक्ति का रूप माना जाता है ,कारण प्रकृति की ऋणात्मक ऊर्जा जिसे शक्ति कहते हैं स्त्रियों में शीघ्रता से अवतरित होती है ,और तंत्र शक्ति को शीघ्र और अत्यधिक पाने का मार्ग है अतः तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है।  तंत्र की एक निश्चित मर्यादा होती है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी ‘शक्ति’ का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, ‘शक्ति’ पर आधारित है।भैरवी ,स्त्री होती है और स्त्री शरीर रचना की दृष्टि से और मानसिक संरचना की दृष्टि से कोमल और भावुकता प्रधान होती है |यह उसका नैसर्गिक प्राकृतिक गुण है |उसमे ऋण ध्रुव अधिक शक्तिशाली होता है और शक्ति साधना प्रकृति के ऋण शक्ति की साधना ही है |इसलिए भैरवी में ऋण शक्ति का अवतरण अतिशीघ्र और सुगमता से होता है जबकि पुरुष अथवा भैरव में इसका वतरण और प्राप्ति कठिनता से हो

भैरवी-साधना

 भैरवी साधना रहस्य ॥ वाममार्गी तन्त्र-साधना में देह को साधना का मुख्य आधार माना गया है। देह में स्थित ‘देव’ को उसकी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ जागृत रखने के लिए ध्यान की पद्धति साधना का प्रारम्भिक चरण है,भगवान से यह शरीर प्राप्त हुआ है, अत: भगवान भी इस शरीर से ही प्राप्त होंगें– यह तथ्य सोलह आना सच्ची एवं स्वाभाविक सत्य है,देह पर संस्कारों और वासनाओं का आवरण विद्यमान रहता है । ‘वासना’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वसन’ शब्द से हुई है । वसन का अर्थ है,वस्त्र वस्तुत: वस्त्र वासना को उद्दीप्त करते हैं । अत: वस्त्र-विहीन देह से आत्मस्वरूप का ध्यान करना साधक को वासना-मुक्त होने में सहायक होता है।इसी प्रकार योनि-पूजन, लिंगार्चन, भैरवी-साधना-चक्र-पूजा एवं बङ्काौली आदि गुप्त साधनाओं के द्वारा तन्त्र-मार्ग में मुक्ति के आनन्द का अनुभव प्राप्त करने की अन्यान्य विधियाँ भी वर्णित हैं किन्तु,ये सभी विधियाँ योग्य व अनुभवी गुरु के सानिध्य में ही सम्पन्न हों, तभी इसमे सफलता प्राप्त किया जा सकता है और जीवन को आनंदित बना सकते है यहाँ तन्त्र-मार्ग की गुह्य साधनाओं में से केवल भैरवी-साधना पर थोड़ा-सा चर्चा करना चाह

क्या होता है जब कुलदेवता /देवी रुष्ट /असंतुष्ट होते हैं ?

  कुलदेवता प्रत्येक वंश के उत्पत्ति कर्ता ऋषि के वह आराध्य हैं जिनकी आराधना उन्होंने अपने वंश की वृद्धि और रक्षा के लिए अपने वंश के लिए उपलब्ध सामग्रियों के साथ अपने लिए उपयुक्त समय में की थी |यह कुलदेवता हर ऋषि के लिए अलग -अलग थे जो उनके प्रकृति और गुणों के अनुकूल थे |कुछ ने कुलदेवी की आराधना इस हेतु की तो कुछ ने कुलदेवता को मुख्य स्थान दिया अपने वंश की सुरक्षा -संरक्षा और पालन के लिए |जिस ऋषि और वंश की जैसी प्रकृति ,कर्म और गुण थे वैसे उन्होंने अपने कुलदेवता और देवी चुने किन्तु यह ध्यान रखा की सभी शिव परिवार से ही हों |कारण की शिव परिवार ही उत्पत्ति और संहार दोनों करता है |इनके बीच के कर्म ही अन्य देवताओं के अंतर्गत आते हैं |दूसरा कि शिव परिवार ही ऊर्जा का वह माध्यम है जो ब्रह्माण्ड से लेकर पृथ्वी तक समान रूप से व्याप्त है |तीसरा कि शिव परिवार की ऊर्जा ही पृथ्वी की सतह पर सर्वत्र व्याप्त है जो सतह पर पृथ्वी की ऊर्जा से मिलकर अलग स्वरुप ग्रहण करता है |चौथा पृथ्वी की समस्त सतही शक्तियाँ जैसे भूत ,प्रेत ,पिशाच ,ब्रह्म ,जिन्न ,डाकिनी ,शाकिनी ,श्मशानिक भैरव -भैरवी ,क्षेत्रपाल आदि सभी शि

बज्रौली मुद्रा भी मूलबंध का अच्छा अभ्यास किए बिना किसी प्रकार संभव नहीं है| यह मुद्रा केवल योगी के लिए ही नहीं, भोगी के लिए भी अत्यंत लाभकारी है| इस मुद्रा में पहले दोनों पांवों को भूमि पर दृढ़तापूर्वक टिकाकर, दोनों पांवों को धीरे-धीरे दृढ़तापूर्वक ऊपर आकाश में उठा दें| इससे बिंदु-सिद्धि होती है| शुक्र को धीरे-धीरे ऊपर की आकुंचन करें अर्थात् इंद्रिय के आंकुचन के द्वारा वीर्य को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें तो यह मुद्रा सिद्ध होती है| विद्वानों का मत है कि इस मुद्रा के अभ्यास में स्त्री का होना आवश्यक है, क्योंकि भग में पतित होता हुआ शुक्र ऊपर की ओर खींच लें तो रज और वीर्य दोनों ही चढ़ जाते हैं| यह क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध होती है| कुछ योगाचार्य इस प्रकार का अभ्यास शुक्र के स्थान पर दुग्ध से करना बताते हैं| जब दुग्ध खींचने का अभ्यास सिद्ध हो जाए, तब शुक्र को खींचने का अभ्यास करना चाहिए| वीर्य को ऊपर खींचनेवाला योगी ही ऊर्ध्वरेता कहलाता है| इस मुद्रा से शरीर हृष्ट-पुष्ट, तेजस्वी, सुंदर, सुडौल और जरा-मृत्यु रहित होता है| शरीर के सभी अवयव दृढ़ होकर मन में निश्‍चलता की प्राप्ति होती है| इसका अभ्यास अधिक कठिन नहीं है| यदि गृहस्थ भी इसके करें, तो बलवर्द्धन और सौंदर्यवर्द्धन का पूरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं|

बज्रौली मुद्रा भी मूलबंध का अच्छा अभ्यास किए बिना किसी प्रकार संभव नहीं है| यह मुद्रा केवल योगी के लिए ही नहीं, भोगी के लिए भी अत्यंत लाभकारी है| इस मुद्रा में पहले दोनों पांवों को भूमि पर दृढ़तापूर्वक टिकाकर, दोनों पांवों को धीरे-धीरे दृढ़तापूर्वक ऊपर आकाश में उठा दें| इससे बिंदु-सिद्धि होती है| शुक्र को धीरे-धीरे ऊपर की आकुंचन करें अर्थात् इंद्रिय के आंकुचन के द्वारा वीर्य को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें तो यह मुद्रा सिद्ध होती है| विद्वानों का मत है कि इस मुद्रा के अभ्यास में स्त्री का होना आवश्यक है, क्योंकि भग में पतित होता हुआ शुक्र ऊपर की ओर खींच लें तो रज और वीर्य दोनों ही चढ़ जाते हैं| यह क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध होती है| कुछ योगाचार्य इस प्रकार का अभ्यास शुक्र के स्थान पर दुग्ध से करना बताते हैं| जब दुग्ध खींचने का अभ्यास सिद्ध हो जाए, तब शुक्र को खींचने का अभ्यास करना चाहिए| वीर्य को ऊपर खींचनेवाला योगी ही ऊर्ध्वरेता कहलाता है| इस मुद्रा से शरीर हृष्ट-पुष्ट, तेजस्वी, सुंदर, सुडौल और जरा-मृत्यु रहित होता है| शरीर के सभी अवयव दृढ़ होकर मन में निश्‍चलता की प्राप्ति होती है| इ

प्रेम विवाह की असफलता के ऊर्जा समीकरण

प्रेम विवाह की अवधारणा पृथ्वी की सभी मानव जातियों ,समुदायों में रही है और आधुनिक काल में यह बहुत अधिक बढ़ गयी है |पूर्व से ही पारिवारिक सहमति से विवाह की अपेक्षा प्रेम विवाह अधिक असफल होता रहा है जो आज के समय में 95 प्रतिशत तक दुखद अथवा असफलता की स्थिति तक आ पहुंचा है |प्रेम विवाह अधिकतर प्रेम अथवा शारीरिक आकर्षण या स्वार्थ आधारित होता है जहाँ शुद्ध प्रेम की मात्रा मात्र एक प्रतिशत में ही होती हैं |99 प्रतिशत मामलों में शारीरिक आकर्षण अथवा स्वार्थ ही होता है |प्रेम हो अथवा स्वार्थ असफलता से इनका कोई सम्बन्ध नहीं ,बस प्रेम रहने पर सहन की शक्ति बढ़ जाने के कारण लोग जैसे तैसे निभाते जाते हैं किन्तु जहाँ भी थोडा भी स्वार्थ होता है सम्बन्ध असफल हो जाते हैं |पाश्चात्य देशों सहित भारत में भी प्रेम विवाह की असफलता में समान सी स्थिति होती है जिसमे स्वभावगत अथवा वैयक्तित कारणों के अतिरिक्त कुछ पारिवारिक और सामाजिक उर्जागत कारण भी होते हैं जिन्हें अक्सर लोग या तो नहीं जानते या नकार देते हैं |पाश्चात्य देशों की स्थिति तो भिन्न होती है किन्तु भारत में कुछ गंभीर स्थानीय उर्जाओं का प्रभाव सम्बन्धों प

स्त्रियों का मूलाधार असंतुलित हो तो क्या होता है

महिलाओं के लिए विशेष  जिस महिला में मोटापा हो अथवा अत्यधिक पतली कमजोर हो , कमजोरी के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो ,बाल कमजोर हों ,सरदर्द ,तनाव आदि की शिकायत हो ,अनिच्छा और अशांति रहती हो ,मासिक गड़बड़ी होती हो ,उचित सम्मान न मिलता हो ,हर कोई दबाने -प्रताड़ित करने का प्रयास करता हो ,चेहरे की तेज कम हो गयी हो ,औरा नकारात्मक हो गयी हो ,बार-बार  डिप्रेशन की परेशानी होती हो ,कमर -जाँघों में दर्द रहता हो ,काम ऊर्जा की कमी महसूस होती हो ,बार बार शारीरिक मानसिक समस्याएं उतपन्न होती हैं ,सन्तान सम्बन्धी दिक्कतें हों ,पति की उपेक्षा से दुखी हों ,माता पिता भाई बहन अथवा ससुराल द्वारा उचित सहायता सम्मान न मिलता हो ,आलस्य-सुस्ती हो ,भय लगता हो ,बुरे सपने आते हों ,अनजाने भयों से आतंकित रहती हों ,पूर्णिमा-अमावश्या को मानसिक विचलन होता हो ,भूत प्रेत का भय लगता हो ,अनिष्ट की आशंका होती हो अथवा बार बार बुरे विचार आते हों ,खुद की और परिवार की उन्नति रूक गई हो ,कलह मतभेद का सामना करना पड़ता हो ,मानसिक रूप से अशांत रहती हो ,अपने भी परायों सा व्यवहार करते हों ,कोई रूठ गया हो ,समय पूर्व ही बुढापे के लक्

भैरवी-साधना

तंत्र साधना शक्ति साधना है |शक्ति प्राप्त करके उससे मोक्ष की अवधारणा तंत्र की मूल अवधारणा है |स्त्रियों को शक्ति का रूप माना जाता है ,कारण प्रकृति की ऋणात्मक ऊर्जा जिसे शक्ति कहते हैं स्त्रियों में शीघ्रता से अवतरित होती है ,और तंत्र शक्ति को शीघ्र और अत्यधिक पाने का मार्ग है अतः तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है।  तंत्र की एक निश्चित मर्यादा होती है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी ‘शक्ति’ का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, ‘शक्ति’ पर आधारित है।भैरवी ,स्त्री होती है और स्त्री शरीर रचना की दृष्टि से और मानसिक संरचना की दृष्टि से कोमल और भावुकता प्रधान होती है |यह उसका नैसर्गिक प्राकृतिक गुण है |उसमे ऋण ध्रुव अधिक शक्तिशाली होता है और शक्ति साधना प्रकृति के ऋण शक्ति की साधना ही है |इसलिए भैरवी में ऋण शक्ति का अवतरण अतिशीघ्र और सुगमता से होता है जबकि पुरुष अथवा भैरव में इसका वतरण और प्राप्ति कठिनता से होती है ,|इस कारण भैरव को भैर