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भैरवी-साधना

 भैरवी साधना रहस्य ॥
वाममार्गी तन्त्र-साधना में देह को साधना का मुख्य आधार माना गया है। देह में स्थित ‘देव’ को उसकी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ जागृत रखने के लिए ध्यान की पद्धति साधना का प्रारम्भिक चरण है,भगवान से यह शरीर प्राप्त हुआ है, अत: भगवान भी इस शरीर से ही प्राप्त होंगें– यह तथ्य सोलह आना सच्ची एवं स्वाभाविक सत्य है,देह पर संस्कारों और वासनाओं का आवरण विद्यमान रहता है । ‘वासना’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वसन’ शब्द से हुई है । वसन का अर्थ है,वस्त्र वस्तुत: वस्त्र वासना को उद्दीप्त करते हैं । अत: वस्त्र-विहीन देह से आत्मस्वरूप का ध्यान करना साधक को वासना-मुक्त होने में सहायक होता है।इसी प्रकार योनि-पूजन, लिंगार्चन, भैरवी-साधना-चक्र-पूजा एवं बङ्काौली आदि गुप्त साधनाओं के द्वारा तन्त्र-मार्ग में मुक्ति के आनन्द का अनुभव प्राप्त करने की अन्यान्य विधियाँ भी वर्णित हैं किन्तु,ये सभी विधियाँ योग्य व अनुभवी गुरु के सानिध्य में ही सम्पन्न हों, तभी इसमे सफलता प्राप्त किया जा सकता है और जीवन को आनंदित बना सकते है यहाँ तन्त्र-मार्ग की गुह्य साधनाओं में से केवल भैरवी-साधना पर थोड़ा-सा चर्चा करना चाहते हैं।॥ ‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु’ ॥अर्थात् , जगत् में जो कुछ है वह स्त्री-रूप ही है,अन्यथा निर्जीव है, तांत्रिक साधना में स्त्री को शक्ति का प्रतीक माना गया है, बिना स्त्री के यह साधना सिद्धिदायक नहीं मानी गयी तंत्र-मार्ग में नारी का सम्मान सर्वोच्च है,पूजनीय है।॥ ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ ॥इस मान्यता को तंत्र-मार्ग में वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त है । रूढ़िवादी सोच के लोग जहाँ नारी को ‘नरक का द्वार’ कहते हैं, वहीं तंत्र-मार्ग में उसे देवी का स्वरूप मानते हुए, पुरुष के बराबर का अधिकार दिया गया है । तंत्र-मार्ग में किसी भी कुल की नारी को हिन भावना से नहीं देखा जाता है ।भैरवी-चक्र-पूजा के सम्बन्ध में ‘निर्वाण-तंत्र’ में उल्लेख है।नात्राधिकार: सर्वेषां ब्रह्मज्ञान् साधकान् बिना ।परब्रह्मोपासका: ये ब्रह्मज्ञा: ब्रह्मतत्परा: ।।शुद्धन्तकरणा: शान्ता: सर्व प्राणिहते रता: ।निर्विकारा: निर्विकल्पा: दयाशीला: दृढ़व्रता: ।।सत्यसंकल्पका: ब्रह्मास्तः एवात्राधिकारिण:॥ अर्थात् ॥चक्र-पूजा में सम्मिलित होने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को नहीं है । जो ब्रह्म को जानने वाला साधक है, उसके सिवाय इसमें कोई शामिल नहीं हो सकता जो ब्रह्म के उपासक हैं,जो ब्रह्म को जानते हैं,जो ब्रह्म को पाने के लिए तत्पर हैं,जिनके मन शुद्ध हैं, जो शान्तचित्त हैं,जो सब प्राणियों की भलाई में लगे रहते हैं,जो विकार से रहित हैं, जो दुविधा से रहित हैं,जो दयावान् हैं,जो प्रण पर दृढ़ रहने वाले हैं,जो सच्चे संकल्प वाले हैं,जो अपने को ब्रह्ममय मानते हैं– वे ही भैरवी-चक्र-पूजा के अधिकारी हैं।भैरवी-साधना का उद्देश्य मानव-देह में स्थित काम-ऊर्जा की आणविक शक्ति के माध्यम से संसार की विस्मृति और ब्रह्मानन्द की अनुभूति प्राप्त करना है । भैरवी-साधना कई चरणों में सम्पन्न होती है। प्रारम्भिक चरण में इस साधना के साधक स्त्री-पुरुष एकान्त और सुुगन्धित वातावरण में निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के सामने बिना एक दूसरे को स्पर्श किए दो-तीन फुट की दूरी पर सुखासन या पद्मासन में बैठकर एक दूसरे की आँखों में देखते हुए मन्त्र का जप करते हैं। निरन्तर ऐसा करते रहने से साधकों के अन्दर का काम-भाव ऊध्र्वगामी होकर दिव्य ऊर्जा के रूप में सहस्र- दल का भेदन करता है।इस साधना के दूसरे चरण में स्त्री-पुरुष साधक एक-दूसरे के अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करते हुए ऊध्र्वगामी काम-भाव को स्थिर बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं । इस बीच मन्त्र का जप निरन्तर होते रहना चाहिए कामोद्दीपन की बाहरी क्रियाओं को करते हुए स्खलन से बचने के लिए भरपूर आत्मसंयम रखना चाहिए - गुरु-कृपा और गुरु-निर्देशन में साधना करने से संयम के सूत्र आसानी से समझे जा सकते हैं।भैरवी-साधना के अन्तिम चरण में स्त्री-पुरुष साधकों द्वारा परस्पर सम-भोग (संभोग) की क्रिया सम्पन्न की जाती है । समान भाव, समान श्रद्धा, समान उत्साह और समान संयम की रीति से शारीरिक भोग की इस साधना को ही सम-भोग अथवा संभोग कहा गया है। यह क्रिया निरापद, निर्भीक, नि:संकोच, निद्र्वन्द्व और निर्लज्ज भाव से मंत्र-जप करते हुए सम्पन्न की जानी चाहिए । युगल-साधकों को पूर्ण आत्मसंयम बरतते हुए भरपूर प्रयास इस बात का करना चाहिए कि दोनों का स्खलन यथा संभव विलम्ब से और एक साथ सम्पन्न हो । अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में भैरवी-चक्र-पूजा के दौरान यह आसानी से संभव हो पाता है।भैरवी-चक्र की अनेक विधियाँ बतायी गई हैं, राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र आदि । चक्र-भेद के अनुसार इस साधना में स्त्री के जाति-वर्ण, पूजा-उपचार, देश-काल, तथा फल-प्राप्ति में अन्तर आ जाता है । भैरवी चक्र-पूजा में सम्मिलित सभी उपासक एवं उपासिकाएँ भैरव और भैरवी स्वरूप हो जाते हैं, क्योंकि उनका देहाभिमान गल जाता है और वे देह-भेद या जाति-भेद से ऊपर उठ जाते हैं। किन्तु, चक्रार्चन के बाहर वर्णाश्रम-कर्म का पालन अवश्य करना चाहिएभैरवी-चक्र-पूजा की सफलता पर एक अलौकिक अनुभव प्राप्त होता है। जैसे बिजली के दो तारों–फेस और न्यूटल– के टकराने से चिंगारी निकलती है, वैसे ही स्त्री-पुरुष दोनों के एकसाथ स्खलित होने से जो चरम-ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह एक ही झटके में सहस्रदल का भेदन कर ब्रह्मानंद का साक्षात्कार करवा देने में सक्षम है । तंत्र-मार्ग में इसी को ‘ब्रह्म-सुख’कहा गया है।शक्ति-संगम संक्षोभात् शत्तयावेशावसानिकम् ।यत्सुखं ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं ब्रह्ममुच्यते ।।= अर्थात्श=क्ति-संगम के आरम्भ से लेकर शक्ति-आवेश के अन्त तक जो ब्रह्मतत्व का सुख प्राप्त होता है, उसे ‘ब्रह्म-सुख’ कहा जाता है । सहस्र-दल-भेदन करने के लिए आज तक जितने भी प्रयोग हुए हैं, उन सभी प्रयोगों में यह प्रयोग सबसे अनूठा है ।भैरवी-साधना सिद्ध होे जाने पर साधक को ब्रह्माण्ड में गूँज रहे दिव्य मंत्र सुनायी पड़ने लगते हैं, दिव्य प्रकाश दिखने लगता है तथा साधक के मन में दीर्घ अवधि तक काम-वासना जागृत नहीं होती । साथ ही उसका मन शान्त व स्थिर हो जाता है तथा उसके चेहरे पर एक अलौकिक आभा झलकने लगती है।प्रत्येक साधना में कोई-न-कोई कठिनाई अवश्य होती है। भैरवी-साधना में भी जो सबसे बड़ी कठिनाई है। वह है अपने आप को काबू में रखना तथा साधक व साधिका का एक साथ स्खलित होना। निश्चय ही गुरु-कृपा और निरन्तर के अभ्यास से यह सम्भव हो पाता है।भैरवी-साधना प्रकारान्तर से शिव-शक्ति की आराधना ही है । शुद्ध और समर्पित भाव से, गुरु-आज्ञानुसार साधक यदि इसको आत्मसात् करें तो जीवन के परम लक्ष्य– ब्रह्मानंद की उपलब्धि उनके लिए सहज सम्भव हो जाती है।किन्तु, कलिकाल के कराल-विकराल जंजाल में फंसे हुए मानव के लिए भैरवी-साधना के रहस्य को समझ पाना अति दुष्कर है। यंत्रवत् दिनचर्या व्यतीत करने वाले तथा भोगों की लालसा में रोगों को पालने वाले आधुनिक जीवन-शैली के दास भला इस दैवीय साधना के परिणामों से कैसे लाभान्वित हो सकते हैं ? इसके लिए शास्त्र और गुरु-निष्ठा के साथ-साथ गहन आत्मविश्वास भी आवश्यक है 

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