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अब करन्यास विधि कहते हैं

अड्‌गुष्ठादि अड्‌गुलियों पर तथा करतल करपृष्ठ पर न्यास करते समय अड्‌गुष्ठाभ्यां नमः, तर्जनीभ्यां नमः, मध्यमाभ्यां नमः, अनामिकाभ्यां नमः, कनिष्ठाभ्यां नमः एवं करतलपृष्ठाभ्यां नमः ऐसा कहना चाहिये -अब अङ्गन्यास का विधान करते हैं -अपनी अपनी मुद्रा एवं जातियों के साथ हृदादि अङ्गों पर न्यास करना चाहिये । अब उन उन मुद्राओं को तथा जातियों को कहा जा रहा है -हृदयाय नमः शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट्‍ कवचाय हुम्, नेत्रत्रयाय वौषट्‍ तथा अस्त्राय फट् से ६ जाति कही जाती है । दो नेत्रवाले देतवा के न्यास में ‘नेत्रभ्यां वौषट्’ ऐसा कहना चाहिये । जहाँ पञ्चागन्यास करना हो वहाँ नेत्रन्यास वर्जित हैं -अब अङ्गन्यास की मुद्रायें कहते हैं -अड्‌गूठे के अतिरिक्त शेष तर्जनी आदि ४ अड्‌गुलियों को फैला कर हृदय और शिर पर पुनः अड्‌गूठा रहित मुट्ठी से शिखा पर तथा कन्धे से लेकर नाभि पर्यन्त, दश अड्‌गुलियों से कवच पर, तीन नेत्र वाले देवता के न्यास में तर्जनी आदि ३ अड्‌गुलियाँ तथा दो नेत्र वाले देवता के न्यास में तर्जनी और मध्यमा इन दो अड्‌गुलियों से न्यास करना चाहिये । हाथ को फैलाकर ३ बार ताली बजाकर साधक तर्जनी और अड्‌गूठे के अग्रभाग को फैलाते हुये दिग्बधन करे - यह अस्त्र मुद्रा कही गई है । विष्णु के अङ्गन्यास की मुद्रायें कही गई हैं -तर्जनी आदि तीन अङ्गगुलियों को फैलाकर हृदय पर, दो अड्‌गुलियों से शिर पर, अड्‌गूठे से शिखा पर, दशों अड्‌गुलियों से वर्म पर, हृदय के समान हो नेत्र पर तथा पूर्ववत् विष्णु के न्यास के समान अस्त्र पर न्यास करना चाहिये । यहाँ तक शक्ति न्यास की मुद्रायें कही गई -अड्‌गूठे को बाहर निकाल कर बनी मुष्टि की मुद्रा से हृदय पर, तर्जनी और अड्‌गूठा के अतिरिक्त शेष अड्‌गुलियों को मिलाकर मुट्ठी बनाकर शिर पर न्यास करना चाहिये । अड्गू्ठा और कनिष्ठा रहित मुटिठयों से शिखा पर, अङ्‍गूठा और तर्जनी रहित मुटिठयों से कवच पर तथा तर्जनी आदि ३ अङ्‌गुलियों से नेत्र पर न्यास करन चाहिये । दोनो हथेली को बजा देने से अस्त्र मुद्रा बन जाती है ये शिव के षङ्गन्यास की मुद्रायें कही गई-इसके बाद वर्णन्यास करना चाहिये । न्यास किये बिना मन्त्र का जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है-पीठ देवताओं के न्यास करने के लिये अपेन शरीर को ही पीठ मान लेना चाहिए । साधक को मूलाधार पर मण्डूक का, स्वाधिष्ठान पर कालाग्नि का, नाभि पर कच्छप का तथा हृदय में आधार शक्ति से आरम्भ कर (कूर्म, अनन्त,पृथ्वी, सागर, रत्नद्वीप, प्रासाद एवं) हेमपीठ तक का न्यास करना चाहिये फिर दाहिने कन्धे, बायें कन्धे, वाम ऊरु एवं दक्षिण ऊरु पर क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का न्यास करना चाहिये और मुख, वाम पार्श्व नाभि एवं दक्षिण पार्श्व पर क्रमशः अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, और अनैश्वर्य का न्यास करना चाहिये-इसके बाद पुनः हृदय में (अनन्त से पद्म तक तल्पाकार अनन्त, आनन्दकन्द, सविन्नाल, पद्म, प्रकृतिमय, पत्र, विकारमय केसर तथा रत्नमय पञ्चाशद्‌बीजाढ्य कर्णिका का) न्यास कर, पद्म पर सूर्य की (तपिनी आदि १२) कलाओं का, चन्द्रमण्डल की (अमृता आदि १६) कलाओं का तथा वहिनमण्डल की (धूम्रार्चिष् आदि १०) कलाओं का नाम तथा उन कलाओं के आदि में वर्णो के प्रारम्भ के अक्षरों को लगाकर न्यास करना चाहिये । फिर अपने नाम के आद्यक्षर सहित सत्त्वादि तीन गुणों का न्यास करना चाहिये । तत्पश्चात् अपने नाम के आदि वर्ण सहित आत्मा अन्तराल और परमात्मा का तथा आदि में परा (ह्रीं) लगाकर ज्ञानात्मा का न्यास करना चाहिये-पुनः माया तत्त्व, कलातत्त्व, विद्यातत्त्व और परतत्त्व का भी अपने नाम के आदि वर्ण सहित न्यास करना चाहिये । तदनन्तर पीठ शक्तियों का न्यास कर अपने पीठ मन्त्र का भी न्यास करना चाहिये । हृदय में अनन्त आदि देवों को उत्तरोत्तर एक दूसरे का आधार माना गया हैं

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