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कुण्डलिनी जागरण

परमपिता का अर्द्धनारीश्वर भाग शक्ति कहलाता है यह ईश्वर की पराशक्ति है (प्रबल लौकिक ऊर्जा शक्ति)। जिसे हम राधासीतादुर्गा या काली आदि के नाम से पूजते हैं। इसे ही भारतीय योगदर्शन में कुण्डलिनी कहा गया है। यह दिव्य शक्ति मानव शरीर में मूलाधार में (रीढ की हड्डी का निचला हिस्सा) सुषुप्तावस्था में रहती है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। इसीलिए यह कुण्डलिनी कहलाती है।
जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है तो यह सहस्त्रार में स्थित अपने स्वामी से मिलने के लिये ऊपर की ओर उठती है। जागृत कुण्डलिनी पर समर्थ सद्गुरू का पूर्ण नियंत्रण होता हैवे ही उसके वेग को अनुशासित एवं नियंत्रित करते हैं। गुरुकृपा रूपी शक्तिपात दीक्षा से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ६ चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार तक पहुँचती है। कुण्डलिनी द्वारा जो योग करवाया जाता है उससे मनुष्य के सभी अंग पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं। साधक का जो अंग बीमार या कमजोर होता है मात्र उसी की यौगिक क्रियायें ध्यानावस्था में होती हैं एवं कुण्डलिनी शक्ति उसी बीमार अंग का योग करवाकर उसे पूर्ण स्वस्थ कर देती है।
इससे मानव शरीर पूर्णतः रोगमुक्त हो जाता है तथा साधक ऊर्जा युक्त होकर आगे की आध्यात्मिक यात्रा हेतु तैयार हो जाता है। शरीर के रोग मुक्त होने के सिद्धयोग ध्यान के दौरान जो बाह्य लक्षण हैं उनमें यौगिक क्रियाऐं जैसे दायं-बायें हिलनाकम्पनझुकनालेटनारोनाहंसनासिर का तेजी से धूमनाताली बजानाहाथों एवं शरीर की अनियंत्रित गतियाँतेज रोशनी या रंग दिखाई देना या अन्य कोई आसनबंधमुद्रा या प्राणायाम की स्थिति आदि मुख्यतः होती हैं ।
मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर
हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में हैवही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार मूलाधार चक्र से आज्ञा चक्र तक का जगत माया का और आज्ञा चक्र से लेकर सहस्त्रार तक का जगत परब्रह्म का है।
वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्यभौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है)२- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति)३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है)४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता)५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता)६- चित्मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है।
प्रथम चार कोष जो मानवता में चेतन हो चुके हैं शेष तीन आध्यात्मिक कोश जो मानवता में चेतन होना बाकी हैं उपरोक्त सातों काषों के पूर्ण विकास को ही ध्यान में रखकर महर्षि श्री अरविन्द ने भविष्यवाणी की है कि आगामी मानव जाति दिव्य शरीर (देह) धारण करेगी
 माँ के नाम से जानी जाती थींअपनी ध्यान की अवस्थाओं के दौरान यह महसूस किया कि अन्तिम विकास केवल तभी हो सकता है जब लौकिक चेतना (जिसे उन्होंने कृष्ण की अधिमानसिक शक्ति कहा है) पृथ्वी पर अवतरित हो।
साधक की कुण्डलिनी चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती हैइसी को मोक्ष कहा गया है।
साधना विधि-
रोज सुबह ब्रम्ह-मुहूर्त मे स्नान आदि क्रियाओसे निवृत्त होकर पूर्व दिशा की और मुख करके गुरुमंत्र,चेतना मंत्र,गायत्री मंत्र का जाप करे माला स्फटिक/रुद्राक्ष का होना चाहिये आसान,वस्त्र पीले/लाल रंग के हो,यह सारी क्रिया होने के बाद 9-10 मिनट तक कुंडलिनी के प्रत्येक चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना है और इस तरहा से रोज ध्यान के क्रिया का समय आगे बढ़ाना है,ध्यान क्रिया के बाद नित्य 1 माला तन्त्रोक्त कुंडलिनी जागरण मंत्र का जाप प्रारम्भ करना है,अभी तो गर्मी के दिन चल रहे है इसलिये 1 ही माला करे,जब गर्मी के दिन समाप्त होने लगेगे तो आप इस मंत्र का ज्यादा-से-ज्यादा माला मंत्र जाप कर सकते है॰इस साधना मे आपको नित्य सदगुरुदेवजी का मानसिक रूप मे आज्ञा लेना जरूरी है यह मेरा आपसे निवेदन है॰


तन्त्रोक्त कुंडलिनी जागरण मंत्र-
॥ ॐ ऐं ह्रां ह्रीं हुं ह्रै ह्रौं ह: कुल-कुंडलिनी जगन्मात: सिद्धि देही देही स्वाहा ॥
मंत्र जाप समाप्ती के बाद साधना गुरुचरनोमे समर्पित कीजिये,इस साधना मे पहिले ही दिन से अनुभूतिया मिलने लगता है॰

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